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बिहार में भाजपा की जबरदस्त पराजय ने साबित कर दिया है की नमो का जादू अब नही रहा.पूरी पार्टी सिर्फ नमो के सहारे ही चल रही थी.क्षेत्रीय नेताओं व् केंद्रीय मंत्रिओं की उपेक्षा आख़िरकार पार्टी पर भरी पड़ी.दिल्ली विधानसभा का इतिहास फिर दुहराया गया.जहाँ तक मेरा विचार है है की प्रधानमंत्री को विधान सभा चुनाओं में इतनी सक्रियता दिखने की आवश्य्कता भी न थी. बीजेपी में अनेंक नेता भरे पड़े हैं. किसी को भी लगाया जा सकता था. पुरे चुनाव प्रचार के विवादों, को देखा जाये तो प्रतीत होता है की नमो व् नीतीश -लालूमें जमकर वैचारिक टकराहट हुई.मोदी ने जहाँ अपने पद की मर्यादा से हट कर व्यकिगत कटाक्ष किये वहीं लालू व् नीतीश भी पलटवार में पीछे नही रहे.सबको अपने आप को सिद्ध करने की मुखर जरूरत थी.परन्तु अंततः परिणाम यह रहा की देश की प्रधानमंत्री की पराजय हुई बीजेपी बुरी तरह हार गयी.भाजपा को इससे यह नसीहत जरूर लेनी चाहिए की केवल नरेंद्र मोदी के चुनाओ प्रचार करने व् राज्य में जाकर बड़े आर्थिक पैकेज का एलान कर देने से चुनाव नहीं जीता जा सकता है. चुनाव जितने के लिए जनता से जुड़ाव व् जनता के बीच सम्बन्ध रखना जरूरी है. हार का ठीकरा चाहे शत्रुघ्न या किसी के सर फोड़ें लेकिन जीत यदि होती तो यह शेहरा जरूर मोदी और शाह के सर होता.
भाजपा को आदत है हार के बाद चिंतन शिविर करने की, अब उसे चिंता शिविर करने चाहिए.प्रधानमंत्री की विधान सभा चुआनों में कम सक्रिय रखे.जमीनी कार्यकताओं की फ़ौज तैयार की जाये था व्यर्थ की बयानबाजी से बचा जाये तो बेहतर रहेगा.बीजेपी केंद्र में पूर्ण बहुमत से आने का मतलब यह नही हो जाता की उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर बहुमत मिल गया है और वे अपने मुताविक संविधान संशोधन कर लेंगे. जैसा की मोहन भगवत ने आरक्षण पर पुनर्विचार का मुद्दा उठाया था.
क्षेत्रीय दलों की बीजेपी के खिलाफ लामबंदी काम आ रही है.क्षत्रप अब बीजेपी को आखँ दिखाते हुए आगे बढ़ रहे है.दिल्ली में केजरीवाल तथा बिहार में लालू व् नीतीश की जोड़ी ने कमल को पछाड़ कर रख दिया है.भाजपा को अब अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए.
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