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गणतंत्र की चुनौतियाँ

Vichar Gatha
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सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बने हमे ६६ वर्ष गुजर गए. आज ६७ वीं वर्षगांठ मना रहे है.यह समय उत्सव मनाने के साथ-२ एक सिंहावलोकन के लिए भी बनता है की गणतंत्र जिन उद्देश्यों उम्मीदों को लेकर बन था उसमे हमें कितनी सफलता मिली.गणतंत्र के पीछे हमारी एक मूल भावना थी आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होना.इसमे केवल आंशिक सफलता ही दिख रही है.भारत में सत्ता आजादी के बाद से ही केवल कुछ परिवारों तक ही सिमट कर रह गयी है.सत्ता का और विकेंद्रीकरण होता है तो वह जाति समूहों तक पहुँच कर सिमट जा रही है.हमारे संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र का ऐसा स्वरूप शायद नहीं सोचा होगा.भारतीय राजनीती में परिवारवाद व् जातिवाद एक भीषण समस्या है.
राष्ट्रवाद औ राष्ट्रीय एकता की भावना भी आज के राजनितिक परिद्रिस्य में कमजोर दिख रही है. कुछेक दल ही ऐसे है जो इससे ओतप्रोत है.राष्ट्रीय सन्दर्भ में कश्मीर हो या अन्य छेत्र सभी दल समान विचार अपने राजनितिक एजेंडे में नही रखते हैं.
आतंकवाद,अलगाववाद ,मावोवाद , लव जिहाद,व् धार्मिक असहिस्नुता भी ऐसे राष्ट्रीय महत्व के विषय हैं जिनपर राष्ट्रीय व् छेत्रिय दलों की आम राय बनानी चाहिए.अन्तराष्ट्रीय आतंकवाद व् आई इस के खतरे से भी निपटने के लिए एकपूर्व सक्रिय प्रणाली अपनानी होगी.तभी हम देश के सम्मान व् विकास को बरकरार रख पाएंगे.बाहरी ओ आंतरिक दोनों खतरों से एक साथ कुशल तरीके से निपटना होगा तभी हम भारत को इस सबल राष्ट्र के रूप में आगे ले जा सकेंगे.

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